जा तेरा गुरु भगवान् जी भला करेंगे
ब्रह्मलीन श्री गुरु पं० बृजमोहन शर्मा जी (जीवन परिचय)
हमारा देश ऋषि-मुनियों एवं सन्त-महात्माओं का देश रहा है एक सच्चा संत ऐसे विशाल वट वृक्ष के समान होता है जिसकी शीतल छाया
में बैठकर मनुष्य हमेशा सुख एवं आनन्द का अनुभव करता है। (मानवीय मूल्यों के पोषक सन्त) परम पूज्य श्री गुरु बृजमोहन शर्मा जी का व्यक्तित्व ऐसा ही था।
आपने आजीवन अपने आध्यात्मिक एवं नैतिक प्रकाश से अनेक प्राणियों का पथ आलोकित कर अपनी शरण रुपी शीतल छाया प्रदान की।
आप विलक्षण प्रतिभा एवं दिव्य विभूतियों से सम्पन्न होने पर भी अत्यन्त सरल स्वभाव के स्वामी थे। धार्मिक प्रवृत्ति होने के कारण आपका विश्वास था कि इस भौतिक
जगत में भी ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। अतः आपने ईश्वर प्राप्ति के लिये कठोर साधना व भक्ति मार्ग को अपनाया। मानवता के पुजारी अपना
साधना के फलस्वरूप इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म समान है इनमें कोई भिन्नता नहीं है। ईश्वर या खुदा तक पहुँचने के साधन मात्र भिन्न-भिन्न हैं।
जन्म
आपका जन्म गाजियाबाद के एक छोटे से ग्राम बेगमाबाद में चैत्र मास की त्रयोदशी सवंत 1991 (01-04-1934),
दिन सोमवार को आदि गौड़ ब्राह्मण परिवार में पंडित श्याम सिंह शर्मा जी के घर हुआ।
आपके पूर्वजों में श्री रामकला जी के पिता श्री ख्याली राम जी हुये। श्री ख्याली राम जी बृहस्पति देव के उपासक थे। 12 वर्ष की घोर तपस्या के बाद उन्हें गुरु भगवान जी के
दर्शन हुए और उन्हें वरदान मिला कि आपकी पाँचवी-छठी पीढ़ी में एक पुण्यात्मा बृजमोहन जी जन्म लेंगें व गुरु भगवान जी की कठोर तपस्या कर उनका
आशीर्वाद प्राप्त करेंगे एंव उनका भव्य मन्दिर बनवायेंगे। वे अपना समस्त जीवन लोक-कल्याण हेतु समर्पित करेंगे। जन्म के समय आपके मुख-मंडल पर अलौकिक तेज था।
आपकी बाल-सुलभ सरलता और मन्त्र-मुग्ध मुस्कान से हर कोई सम्मोहित हो जाता था। बाल्यकाल से ही आप बहुत शान्त प्रवृत्ति एवं तीव्र बुद्धि के स्वामी थे।
शिक्षा, नौकरी
गुरु जी का जन्म एक मध्यम वर्गीय किसान परिवार में हुआ था। आपने कृषि कार्य में अपने पिताजी का पर्याप्त सहयोग करने के साथ-साथ कठोर परिश्रम एवं
लगन के साथ अध्ययन भी किया और उच्च शिक्षा प्राप्त कर उत्तर-प्रदेश सिचाई विभाग में इंजीनियर के पद पर चयनित हुये।
आपने 34 वर्ष तक इस पद को सुशोभित किया। आपने एक कर्मयोगी की तरह अपने सांसारिक दायित्व का निर्वाह पूरी निष्ठा के साथ किया
गुरु जी का अन्तर्मन अत्यन्त निश्चल, सहज और विनयशील था। वह संर्कीणताओं से बहुत दूर अपने कार्यों में लगे रहते थे।
धार्मिक कार्यों में रूचि
माता-पिता के द्वारा प्रदत्त संस्कारों के कारण आप प्रारम्भ से ही धार्मिक कार्यों में रूचि होने के साथ-साथ लोक कल्याण की भावना भी रखते थे।
अपने सांसारिक दायित्व के अतिरिक्त गुरु भगवान जी की साधना एवं तपस्या, आपकी दिनचर्या का अभिन्न अंग बन गई।
अपनी कठोर तपस्या एवं पवित्र भावना और सत्य के तेज के कारण आपको गुरु भगवान जी के दिव्य स्वरुप का साक्षात दर्शन एवं आशीर्वाद प्राप्त हुआ।
आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा
गुरु भगवान जी के आशीर्वाद से आध्यात्मिकता की उन ऊचाईयों को स्पर्श करने के कारण आप उन महान सन्तों की कोटि में गिने जाते हैं जो
अलौकिक व्यक्तित्व के स्वामी होते हुए भीसमाज में साधारण मानव के समान दृष्टिगोचर होते हैं।
आप उत्तर-प्रदेश में बहनें वाली पवित्र नदियों के किनारे बसे प्रमुख शहरों में कार्यरत रहे।
जहाँ आपने सिचाई विभाग के कार्यों के साथ-साथ गहन चिन्तन-मनन एवं स्वंय कठोर साधना से अनेक सिद्धियाँ अर्जित की।
गृहस्थ जीवन
श्री बृजमोहन शर्मा जी का विवाह 17 फरवरी सन् 1961 में श्री कृष्ण स्वरुप शर्मा जी एवं श्रीमती रेवती शर्मा जी की सुपुत्री श्रीमती सन्तोष रानी के साथ सम्पन्न हुआ।
आप अपने माता-पिता की ज्येष्ठ पुत्री थी। अतः माता-पिता एवं दादा-दादी जी की बहुत लाडली थी। गुरु जी का शान्ति स्वरूपा माता जी से विवाह होना भी
प्रभु इच्छा ही थी। वास्तव में ये दो दिव्य विभूतियों का मिलन था। पूज्य माता जी एक आदर्श महिला थी। आपकी भी धर्म आध्यात्म में विशेष रुचि थी।
आपका नाम आपके स्वभाव अनुरुप था। आपका व्यक्तित्व असाधारण था। जीवन में अनेक बार ऐसा हुआ कि आपको कई घटनाओं का पूर्वाभास हो जाता था।
श्री माँजी ने सांसारिक कर्त्व्यों में गुरु जी का पूर्ण सहयोग करते हुये उन्हें आध्यात्म एवं लोक-कल्याण के मार्ग पर चलने हेतु भी सदा प्रोत्साहित किया।
आप व्यक्तिगत रुप में भी सदा लोक-कल्याण हेतु तत्पर रहती थी। आप भारतीय संस्कृति एव संस्कारों का सम्मान करने वाली एक आदर्श पत्नी और माँ थी।
आपने अपने बच्चों को भी भारत की महान संस्कृति और संस्कारां की शिक्षा दी ।
गुरु जी ने गृहस्थ आश्रम में रहते हुए अपने आध्यात्मिक एवं सांसारिक जीवन को व्यवस्थित ढंग से निभाया। जीवन की विकट परिस्थितियों में भी आपने धैर्य बनाये
रखा जो आज भी एक उदाहरण है। आपकी गुरु भगवान जी में अटूट श्रद्धा थी। आपने जीवन की हर परिस्थिति को भगवान को समर्पित किया।
भक्ति की लौ को हृदय में जलाये रखना
आपने अपने हृदय में ईश्वर भक्ति की लौ को निरन्तर जलाये रखा। भक्ति के इस प्रकाश से आपने अपने जीवन के साथ-साथ अन्य लोगों का जीवन भी प्रकाशित किया।
भक्ति की चरम सीमा के कारण ही श्री गुरु भगवान जी की साक्षात कृपा आप पर रहती थी। एक साधारण व्यक्ति की तरह रहते हुए भी आपकी भक्ति एवं
सिद्धि का स्तर असाधारण था। आपने अपने ज्ञान और साधना को व्यवहार में भी इस प्रकार उतारा कि आपका व्यक्तित्व उस पारसमणि के समान हो गया,
जिसका स्पर्श पाते ही लोहा भी सोना हो जाता है।
गुरु जी का व्यक्तित्व
गुरु जी बाहर से जितने कठोर और मर्यादित थे, हृदय से उतने ही कोमल और दयालु भी थे। किसी के दुख को नजर-अन्दाज करना उनकी प्रकृति में नहीं था।
उनका कहना था कि ‘‘हमारा स्वाभाविक व्यवहार हमारे व्यक्तित्व को प्रकट करता है।’’ अच्छा व्यक्तित्व ही सब अच्छाइयों की आधारशिला है।
मनुष्य को सर्वप्रथम चरित्रवान होना चाहिए। आप जाति, धर्म आदि, भेद-भाव एवं मान-अपमान आदि की भावना से सदा मुक्त रहते थे
और निःस्वार्थ भाव से सब के कष्ट दूर करते थे।
लोक-कल्याण की भावना
गुरु जी ने श्रद्धा और तपस्या के बल पर आत्मज्ञान प्राप्त किया तथा प्रभु भक्ति को अपने जीवन का लक्ष्य बनाकर लोक-कल्याण का मार्ग अपनाया। आपने लोगों को भी सदैव इसी पथ पर चलने हेतु प्रेरित किया। आपका कहना था कि हम सब की मन्जिल एक है मनुष्य जीवन बहुत मुश्किल से प्राप्त होता है, अतः आवश्यक यही है कि विषय विकारों को त्याग कर ईश्वर भक्ति में ध्यान लगाया जाये वही आपके भीतर परम शान्ति के अनुभव का एकमात्र साधन है। आपका कहना था जो दूसरों की भलाई करना चाहता है भगवान उसका भला पहले ही कर चुका होता है। प्रभु कृपा पाने के लिये लोक-कल्याण की भावना जितनी प्रबल होगी उतना ही हम स्वयं प्रभु को प्रभु के निकट महसूस करेंगे।
अन्तः प्रज्ञता
आप एक पूर्ण आत्मज्ञानी सन्त थे। आपका कहना था कि सन्त वह नहीं होता जो घर त्याग देता है, बल्कि सन्त होने का सबसे बड़ा लक्षण है – इच्छा, लोभ, क्रोध और अहंकार का त्याग करना और भीतर से सरल होना। गुरु जी कहते थे, ‘‘किसी को सही राह दिखाने के लिये आवश्यक है स्वयं उस राह पर चला जाये।’’ आप सदैव ईश्वर की भक्ति में मस्त रहते थे।
आपका जीवन पवित्रता और सरलता से परिपूर्ण था। गुरु जी के कथन- सबसे प्रेम करो, सबको देना सीखो, सदैव लोक कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होने की प्ररेणा देते रहते हैं।
समय और परिस्थितियों कभी भी बदल सकती हैं, इसलिये जीवन में किसी का अपमान मत करो।
दूरदर्शिता
गुरुजी की दूरदर्शिता अनुभव और दृष्टि बेहद गहरी व ईशपरक रही। जिसके कारण उन्हें कुछ कहने में संकोच नहीं होता था। अपने विचारों,
आचरण और वाणी से अर्थपूर्ण तालमेल साधते हुये अपने जीवन को परिपूर्ण करने वाले श्री गुरु जी जन सामान्य को कैसे जीना चाहिये यही प्रेरणा देते थे।
यही कारण है कि उनके कथन जन-साधारण के हृदय में सीधे उतरते थे। वे किसी भी व्यक्ति में भेद-भाव नहीं करते थे, चाहे वो धनवान हो या निर्धन।
वे सदैव समदृष्टि रखते थे। उनका विचार था कि किसी भी जाति या धर्म में जन्म लेकर अपनी उत्कृष्ट भक्ति और सदाचार के बल पर आत्म-विकास किया जा सकता है।
व्यक्ति के सत्कर्म और उसकी शुद्ध आत्मा ही उसे महान बनाती है। गुरु जी कहा करते थे कि ‘‘जिसे सन्त बनना है उसे सांसारिकता का विषपान करना ही होगा।’’
प्रभु के प्रति अटूट प्रेम और विश्वास
श्री गुरु भगवान जी के प्रति उनका अटूट प्रेम व विश्वास था। वे सदा निष्काम भाव से प्रभु के ध्यान में लीन रहते थे। प्रभु प्रेम का रस ही ऐसा है कि जिसने इस
अमृतरस का पान कर लिया वह प्रभु प्रेम की धारा में निरन्तर बहता चला गया। सुख दुःख हर परिस्थिति में यह धारा अविरल बहती रहती है। वह कहते थे, प्रेम मानवता का
दूसरा नाम है। परमात्मा प्रार्थना का नहीं प्रेम का भूखा है। वह समस्त भक्तजन से कहते थे कि जब मन और वाणी एक होकर कोई चीज मांगते हैं तो
उस प्रार्थना का जवाब जरुर मिलता है।
‘‘एकोहं बहुस्याम’’
उनकी वाणी स्वंयभू ईश्वर की वाणी थी। उनका कथन अटल था। वे कहते थे ‘‘परमात्मा एक हैं।’’ यह सृष्टि उसके ‘‘एकोहं बहुस्याम” के संकल्प का परिणाम है
क्योंकि हमारे वैदिक शास्त्रों के अनुसार ईश्वर के संकल्प के परिणाम स्वरुप ही एक अनेक में प्रतीत होते हैं। सभी एक सूत्र में पिरोये हुए हैं।
इस तथ्य को आत्मानुभूति से ही अनुभव किया जा सकता है। वे कहते थे कि हृदय रुपी दर्पण जितना स्वच्छ होगा उसी के अनुरुप हम अपनी अन्तर्चेतना में
परमात्मा के प्रतिबिम्ब की झलक पा सकेगें। ‘‘आत्मा परमात्मा का ही अंश है।‘‘ यह आत्मा मुक्त होकर परमात्मा में विलीन हो जाती है। श्री महाराज जी कहते थे
परमात्मा कहीं और नहीं अपने अन्दर ही विद्यमान है। सच्चे मन से श्रद्धा और विश्वास के साथ भगवान के लिये किया गया पुरुषार्थ कभी भी निष्फल नहीं होता।
वह कहते थे कि ज्ञान की खोज स्वंय की अनुभूति के आधार पर होनी चाहिये। अतः हर व्यक्ति को अपने भीतर ही खोज करनी चाहिये, न कि बाहर। उनका कहना था
कि सम्पूर्ण सृष्टि के प्रत्येक कण-कण में ईश्वर की सत्ता शाश्वत रूप में विराजमान है। सभी उसी परम सत्ता के स्वरुप हैं।
उनका मानना था कि शिष्य को अपने गुरु को ईश्वर का प्रतिनिधि मानकर उनके दिव्य चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित कर देना चाहिये।
पूर्ण समर्पण से ही मानव आत्म ज्ञान के दुर्गम मार्ग पर अग्रसित होता है।
जीर्ण-शीर्ण मन्दिरों का जीणोद्धार
सेवा-निवृत्त होने के बाद श्री गुरु जी ने केवल गुरू भगवान जी की भक्ति और मानव सेवा को ही अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बनाया।
श्री गुरु भगवान जी का सपना था कि श्री गुरु भगवान जी का भव्य मन्दिर बनाया जाये। आपने फरवरी सन् 1985 को ग्राम शाहजहाँपुर, ग्राम मछरी, ग्राम भटजन की सीमा
पर कोड़ियाँ तालाब मोदीनगर में श्री गुरु भगवान जी, श्री कामाख्या देवी जी एवं श्री बालाजी महाराज जी का आशीर्वाद प्राप्त किया तथा उनकी सुन्दर प्रतिमा बनवाकर
उनकी प्राण-प्रतिष्ठा भी करायी। गुरु पूर्णिमा व हनुमान जयंती पर वहां विशाल भंडारे का आयोजन होता था, वहां एक तालाब भी है, जिसे कोडियाँ तालाब के नाम से जाना जाता है।
कहते हैं गुरु जी की तपस्या से प्रसन्न होकर श्री गुरु भगवान जी ने आशीर्वाद दिया था कि त्वचा सम्बन्धी रोग होने पर जो भी मनुष्य इस तालाब में स्नान करेगा व तालाब की
पवित्र मिट्टी का लेपन करे तो उसके त्वचा सम्बन्धी रोग ठीक हो जायेंगे, जिसका लाभ आज तक भक्तजनों को हो रहा है।
इतना ही नहीं गुरु जी की मन्दिरों के प्रति बहुत आस्था थी। ‘‘कर्म करो फल की चिन्ता मत करो’’ के सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए अपने नौकरी काल में जहाँ गये, वहां पुराने जीर्ण शीर्ण मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया और अपने नाम को कहीं भी आगे नहीं आने दिया।
बहुत प्रेम और श्रद्धा से बनवाया हुआ शाहजहाँपुर कोडियाँ तालाब वाला मन्दिर भी कुछ समय बाद ग्राम-वासियों को ही सुपुर्द करके मोदीनगर श्री गुरुधाम श्याम मार्किट में
अपना जन-कल्याण करने के संकल्प को पूरा किया।
पंच भौतिक शरीर का परित्याग
दुःखी और पीड़ितों की सेवा के साथ-साथ ईश्वर भक्ति में लीन रहकर
परम पूज्य श्री गुरु महाराज जी ने 3 मार्च सन् 2016 नवम तिथि (पूर्ण तिथि) दिन बृहस्पतिवार प्रातः काल में अपने पंच भौतिक शरीर का परित्याग कर ब्रह्मलीन हो गये।
ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि साधारणतः में वे अति विशिष्ट हैं। जो व्यक्ति सच्ची श्रद्धा एवं पूर्ण विश्वास से इनकी शरण में आता है वो मनोवांछित मुरादें पूरी कर के जाता है।
वे धर्म और आध्यात्मिकता के साकार विग्रह (मूर्ति) थे। गुरु जी का कथन था कि जिसने अपनी इच्छाओं पर नियन्त्रण कर लिया उस मनुष्य ने जीवन के दुःखों पर नियन्त्रण कर लिया।
गुरु जी की विशिष्टता, उनकी सरलता व सौम्यता ही है कि वे नितांत्त, निःस्पृह, निष्कपट, स्पष्ट वक्ता और करुणा के सागर हैं।